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Ask Question
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Ishant Rajput 3 years, 6 months ago

हमारे मन में विचारों की , भावों की तथा प्रेम की धारा का बहना जैसे नदी बहती है।

Surender G 3 years, 7 months ago

मन के भाव, विचार व प्रेम
  • 1 answers

Hetvi Darji 3 years, 7 months ago

इस पाठ में यह संदेश मिलता है कि हमें पुर्वाजोकी कहीं हुवी वत को टाल ना नहीं चाहिए , किन्तु लखेक भी अपने जगह पर सही ते की पानी की कटौती हा ओर हम पानी का ही दूर उपयोग कर रहे है ।
  • 4 answers

Sia ? 3 years, 7 months ago

कवि परिचय
हरिवंश राय बच्चन

जीवन परिचय-कविवर हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर सन 1907 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा 1942-1952 ई० तक यहीं पर प्राध्यापक रहे। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड से पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। अंग्रेजी कवि कीट्स पर उनका शोधकार्य बहुत चर्चित रहा। वे आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से संबंद्ध रहे और फिर विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ रहे। उन्हें राज्यसभा के लिए भी मनोनीत किया गया। 1976 ई० में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया। ‘दो चट्टानें’ नामक रचना पर उन्हें साहित्य अकादमी ने भी पुरस्कृत किया। उनका निधन 2003 ई० में मुंबई में हुआ।<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
<script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); </script>रचनाएँ-हरिवंश राय बच्चन की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. काव्य-संग्रह-मधुशाला (1935), मधुबाला (1938), मधुकलश (1938), निशा-निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल-अंतर, मिलनयामिनी, सतरंगिणी, आरती और अंगारे, नए-पुराने झरोखे, टूटी-फूटी कड़ियाँ।
  2. आत्मकथा-क्या भूलें क्या याद करूं, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक।
  3. अनुवाद-हैमलेट, जनगीता, मैकबेथ।
  4. डायरी-प्रवासी की डायरी।

काव्यगत विशेषताएँ-बच्चन हालावाद के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। दोनों महायुद्धों के बीच मध्यवर्ग के विक्षुब्ध विकल मन को बच्चन ने वाणी दी। उन्होंने छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की बजाय सीधी-सादी जीवंत भाषा और संवेदना से युक्त गेय शैली में अपनी बात कही। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन में घटी घटनाओं की सहजअनुभूति की ईमानदार अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से की है। यही विशेषता हिंदी काव्य-संसार में उनकी प्रसिद्ध का मूलाधार है। भाषा-शैली-कवि ने अपनी अनुभूतियाँ सहज स्वाभाविक ढंग से कही हैं। इनकी भाषा आम व्यक्ति के निकट है। बच्चन का कवि-रूप सबसे विख्यात है उन्होंने कहानी, नाटक, डायरी आदि के साथ बेहतरीन आत्मकथा भी लिखी है। इनकी रचनाएँ ईमानदार आत्मस्वीकृति और प्रांजल शैली के कारण आज भी पठनीय हैं।

कविताओं का प्रतिपादय एवं सार
आत्मपरिचय

प्रतिपादय-कवि का मानना है कि स्वयं को जानना दुनिया को जानने से ज्यादा कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा तो होता ही है। संसार से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं। दुनिया अपने व्यंग्य-बाण तथा शासन-प्रशासन से चाहे जितना कष्ट दे, पर दुनिया से कटकर मनुष्य रह भी नहीं पाता। क्योंकि उसकी अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स, उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है।

कवि अपना परिचय देते हुए लगातार दुनिया से अपने द्रविधात्मक और द्वंद्वात्मक संबंधों का मर्म उद्घाटित करता चलता है। वह पूरी कविता का सार एक पंक्ति में कह देता है कि दुनिया से मेरा संबंध प्रीतिकलह का है, मेरा जीवन विरुद्धों का सृामंजस्य है- उन्मादों में अवसाद, रोदन में राग, शीतल वाणी में आग, विरुद्धों का विरोधाभासमूलक सामंजस्य साधते-साधते ही वह बेखुदी, वह मस्ती, वह दीवानगी व्यक्तित्व में उत्तर आई है कि दुनिया का तलबगार नहीं हूँ। बाजार से गुजरा हूँ, खरीदार नहीं हूँ-जैसा कुछ कहने का ठस्सा पैदा हुआ है। यह ठस्सा ही छायावादोत्तर गीतिकाव्य का प्राण है।

किसी असंभव आदर्श की तलाश में सारी दुनियादारी ठुकराकर उस भाव से कि जैसे दुनिया से इन्हें कोई वास्ता ही नहीं है। सार-कवि कहता है कि यद्यपि वह सांसारिक कठिनाइयों से जूझ रहा है, फिर भी वह इस जीवन से प्यार करता है। वह अपनी आशाओं और निराशाओं से संतुष्ट है। वह संसार से मिले प्रेम व स्नेह की परवाह नहीं करता क्योंकि संसार उन्हीं लोगों की जयकार करता है जो उसकी इच्छानुसार व्यवहार करते हैं। वह अपनी धुन में रहने वाला व्यक्ति है। वह निरर्थक कल्पनाओं में विश्वास नहीं रखता क्योंकि यह संसार कभी भी किसी की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाया है। कवि सुख-दुख, यश-अपयश, हानि-लाभ आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में एक जैसा रहता है। यह संसार मिथ्या है, अत: यहाँ स्थायी वस्तु की कामना करना व्यर्थ है।

कवि संतोषी प्रवृत्ति का है। वह अपनी वाणी के जरिये अपना आक्रोश व्यक्त करता है। उसकी व्यथा शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है तो संसार उसे गाना मानता है। संसार उसे कवि कहता है, परंतु वह स्वयं को नया दीवाना मानता है। वह संसार को अपने गीतों, द्वंद्वों के माध्यम से प्रसन्न करने का प्रयास करता है। कवि सभी को सामंजस्य बनाए रखने के लिए कहता है।

एक गीत

प्रतिपादय-निशा-निमंत्रण से उद्धृत इस गीत में कवि प्रकृति की दैनिक परिवर्तनशीलता के संदर्भ में प्राणी-वर्ग के धड़कते हृदय को सुनने की काव्यात्मक कोशिश व्यक्त करता है। किसी प्रिय आलंबन या विषय से भावी साक्षात्कार का आश्वासन ही हमारे प्रयास के पगों की गति में चंचल तेजी भर सकता है-अन्यथा हम शिथिलता और फिर जड़ता को प्राप्त होने के अभिशिप्त हो जाते हैं। यह गीत इस बड़े सत्य के साथ समय के गुजरते जाने के एहसास में लक्ष्य-प्राप्ति के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा भी लिए हुए है।

सार-कवि कहता है कि साँझ घिरते ही पथिक लक्ष्य की ओर तेजी से कदम बढ़ाने लगता है। उसे रास्ते में रात होने का भय होता है। जीवन-पथ पर चलते हुए व्यक्ति जब अपने लक्ष्य के निकट होता है तो उसकी उत्सुकता और बढ़ जाती है। पक्षी भी बच्चों की चिंता करके तेजी से पंख फड़फड़ाने लगते हैं। अपनी संतान से मिलने की चाह में हर प्राणी आतुर हो जाता है। आशा व्यक्ति के जीवन में नई चेतना भर देती है। जिनके जीवन में कोई आशा नहीं होती, वे शिथिल हो जाते हैं। उनका जीवन नीरस हो जाता है। उनके भीतर उत्साह समाप्त हो जाता है। अत: रात जीवन में निराशा नहीं, अपितु आशा का संचार भी करती है।

Sam Islam 11 months ago

प्रतिपादय-कवि का मानना है कि स्वयं को जानना दुनिया को जानने से ज्यादा कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा तो होता ही है। संसार से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं। दुनिया अपने व्यंग्य-बाण तथा शासन-प्रशासन से चाहे जितना कष्ट दे, पर दुनिया से कटकर मनुष्य रह भी नहीं पाता। क्योंकि उसकी अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स, उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है। कवि अपना परिचय देते हुए लगातार दुनिया से अपने द्रविधात्मक और द्वंद्वात्मक संबंधों का मर्म उद्घाटित करता चलता है। वह पूरी कविता का सार एक पंक्ति में कह देता है कि दुनिया से मेरा संबंध प्रीतिकलह का है, मेरा जीवन विरुद्धों का सृामंजस्य है- उन्मादों में अवसाद, रोदन में राग, शीतल वाणी में आग, विरुद्धों का विरोधाभासमूलक सामंजस्य साधते-साधते ही वह बेखुदी, वह मस्ती, वह दीवानगी व्यक्तित्व में उत्तर आई है कि दुनिया का तलबगार नहीं हूँ। बाजार से गुजरा हूँ, खरीदार नहीं हूँ-जैसा कुछ कहने का ठस्सा पैदा हुआ है। यह ठस्सा ही छायावादोत्तर गीतिकाव्य का प्राण है। किसी असंभव आदर्श की तलाश में सारी दुनियादारी ठुकराकर उस भाव से कि जैसे दुनिया से इन्हें कोई वास्ता ही नहीं है। सार-कवि कहता है कि यद्यपि वह सांसारिक कठिनाइयों से जूझ रहा है, फिर भी वह इस जीवन से प्यार करता है। वह अपनी आशाओं और निराशाओं से संतुष्ट है। वह संसार से मिले प्रेम व स्नेह की परवाह नहीं करता क्योंकि संसार उन्हीं लोगों की जयकार करता है जो उसकी इच्छानुसार व्यवहार करते हैं। वह अपनी धुन में रहने वाला व्यक्ति है। वह निरर्थक कल्पनाओं में विश्वास नहीं रखता क्योंकि यह संसार कभी भी किसी की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाया है। कवि सुख-दुख, यश-अपयश, हानि-लाभ आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में एक जैसा रहता है। यह संसार मिथ्या है, अत: यहाँ स्थायी वस्तु की कामना करना व्यर्थ है। कवि संतोषी प्रवृत्ति का है। वह अपनी वाणी के जरिये अपना आक्रोश व्यक्त करता है। उसकी व्यथा शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है तो संसार उसे गाना मानता है। संसार उसे कवि कहता है, परंतु वह स्वयं को नया दीवाना मानता है। वह संसार को अपने गीतों, द्वंद्वों के माध्यम से प्रसन्न करने का प्रयास करता है। कवि सभी को सामंजस्य बनाए रखने के लिए कहता है।

Sia ? 3 years, 7 months ago

आत्मपरिचय

  1. मैं जग – जीवन का मार लिए फिरता हूँ,
    फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
    कर दिया किसी ने प्रकृत जिनको छूकर
    मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हुँ !
    मैं स्नेह-सुरा का पान किया कस्ता हूँ,
    में कभी न जग का ध्यान किया करता हुँ,
    जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
    मैं अपने मन का गान किया करता हूँ !

शब्दार्थ- जग-जीवन-सांसारिक गतिविधि। द्वकृत-तारों को बजाकर स्वर निकालना। सुरा-शराब। स्नेह-प्रेम। यान-पीना। ध्यान करना-परवाह करना। गाते-प्रशंसा करते।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘आत्मपरिचय’ से उद्धृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध विंशरायबच्नहैं इसाकवता मेंकवजनजनेक शैलो बताहैतथा दुनयासेआने क्वाकस्बोंकडबार करता हैं ।
व्याख्या- बच्चन जी कहते हैं कि मैं संसार में जीवन का भार उठाकर घूमता रहता हूँ। इसके बावजूद मेरा जीवन प्यार से भरा-पूरा है। जीवन की समस्याओं के बावजूद कवि के जीवन में प्यार है। उसका जीवन सितार की तरह है जिसे किसी ने छूकर झंकृत कर दिया है। फलस्वरूप उसका जीवन संगीत से भर उठा है। उसका जीवन इन्हीं तार रूपी साँसों के कारण चल रहा है। उसने स्नेह रूपी शराब पी रखी है अर्थात प्रेम किया है तथा बाँटा है। उसने कभी संसार की परवाह नहीं की। संसार के लोगों की प्रवृत्ति है कि वे उनको पूछते हैं जो संसार के अनुसार चलते हैं तथा उनका गुणगान करते हैं। कवि अपने मन की इच्छानुसार चलता है, अर्थात वह वही करता है जो उसका मन कहता है।

  1. मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ
    मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ
    है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता
    मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ।
    मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ
    सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ,
    जग भव-सागर तरने की नाव बनाए,
    मैं भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूँ।

शब्दार्थ- उदगार-दिल के भाव। उपहार-भेंट। भाता-अच्छा लगता। स्वप्नों का संसार-कल्पनाओं की दुनिया। दहा-जला। भव-सागर-संसार रूपी सागर। मौज-लहरों।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘आत्मपरिचय’ से अवतरित है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंशराय बच्चन हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या- कवि अपने मन की भावनाओं को दुनिया के सामने कहने की कोशिश करता है। उसे खुशी के जो उपहार मिले हैं, उन्हें वह साथ लिए फिरता है। उसे यह संसार अधूरा लगता है। इस कारण यह उसे पसंद नहीं है। वह अपनी कल्पना का संसार लिए फिरता है। उसे प्रेम से भरा संसार अच्छा लगता है। .

वह कहता है कि मैं अपने हृदय में आग जलाकर उसमें जलता हूँ अर्थात मैं प्रेम की जलन को स्वयं ही सहन करता हूँ। प्रेम की दीवानगी में मस्त होकर जीवन के जो सुख-दुख आते हैं, उनमें मस्त रहता हूँ। यह संसार आपदाओं का सागर है। लोग इसे पार करने के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैं, परंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। उसे संसार की कोई चिंता नहीं है।

  1. मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
    उन्मादाँ’ में अवसाद लिए फिरता हुँ,
    जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
    मैं , हाय, किसी की याद लिए फिरता हुँ !
    कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
    नादान वहीं हैं, हाथ, जहाँ पर दाना!
    फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
    मैं  सीख रहा हुँ, सीखा ज्ञान भुलाना !

शब्दार्थ- यौवन-जवानी। उन्माद-पागलपन। अवसाद-उदासी, खेद। यत्न-प्रयास। नादान-नासमझ, अनाड़ी। दाना-चतुर, ज्ञानी। मूढ़-मूर्ख। जग-संसार।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘आत्मपरिचय’ से उद्धृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध पदकक्रियबनाई इसाकवता मेंकोजीनकजनेक शैलो बताता है साथहदुनयासे।अनेट्वंद्वान्कसंबंक उजागर करता ह ।
व्याख्या- कवि कहता है कि उसके मन पर जवानी का पागलपन सवार है। वह उसकी मस्ती में घूमता रहता है। इस दीवानेपन के कारण उसे अनेक दुख भी मिले हैं। वह इन दुखों को उठाए हुए घूमता है। कवि को जब किसी प्रिय की याद आ जाती है तो उसे बाहर से हँसा जाती है, परंतु उसका मन रो देता है अर्थात याद आने पर कवि-मन व्याकुल हो जाता है।

कवि कहता है कि इस संसार में लोगों ने जीवन-सत्य को जानने की कोशिश की, परंतु कोई भी सत्य नहीं जान पाया। इस कारण हर व्यक्ति नादानी करता दिखाई देता है। ये मूर्ख (नादान) भी वहीं होते हैं जहाँ समझदार एवं चतुर होते हैं। हर व्यक्ति वैभव, समृद्ध, भोग-सामग्री की तरफ भाग रहा है। हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए भाग रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं सीख सके। कवि कहता है कि मैं सीखे हुए ज्ञान को भूलकर नई बातें सीख रहा हूँ अर्थात सांसारिक ज्ञान की बातों को भूलकर मैं अपने मन के कहे अनुसार चलना सीख रहा हूँ।

  1. मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
    मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता,
    जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
    मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
    मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
    शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
    हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
    मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।

शब्दार्थ- नाता-संबंध। वैभव-समृद्ध। पग-पैर। रोदन-रोना। राग-प्रेम। आग-जोश। भूय-राजा। प्रासाद-महल। निछावर-कुर्बान। खडहर-टूटा हुआ भवन। भाग-हिस्सा।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘आत्मपरिचय’ से उद्धृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंशराय बच्चन हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या- कवि कहता है कि मुझमें और संसार-दोनों में कोई संबंध नहीं है। संसार के साथ मेरा टकराव चल रहा है। कवि अपनी कल्पना के अनुसार संसार का निर्माण करता है, फिर उसे मिटा देता है। यह संसार इस धरती पर सुख के साधन एकत्रित करता है, परंतु कवि हर कदम पर धरती को ठुकराया करता है। अर्थात वह जिस संसार में रह रहा है, उसी के प्रतिकूल आचार-विचार रखता है।

कवि कहता है कि वह अपने रोदन में भी प्रेम लिए फिरता है। उसकी शीतल वाणी में भी आग समाई हुई है अर्थात उसमें असंतोष झलकता है। उसका जीवन प्रेम में निराशा के कारण खंडहर-सा है, फिर भी उस पर राजाओं के महल न्योछावर होते हैं। ऐसे खंडहर का वह एक हिस्सा लिए घूमता है जिसे महल पर न्योछावर कर सके।

  1. मैं रोया, इसको तुम कहाते हो गाना,
    मैं फूट पडा, तुम कहते, छंद बनाना,
    क्यों कवि  कहकर संसार मुझे अपनाए,
    मैं दुनिया का हूँ एक क्या दीवान”
    मैं बीवानों का वेश लिए फिरता हूँ
    मैं मादकता निद्भाशष लिए फिरता ही
    जिसकी सुनकर ज़य शम, झुके; लहराए,
    मैं मरती का संदेश लिए फिरता हुँ

शब्दार्थ- फूट पड़ा-जोर से रोया। दीवाना-पागल। मादकता-मस्ती। नि:शेष-संपूर्ण।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘आत्मपरिचय’ से उद्धृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंश राय बच्चन हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की अपनी शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या- कवि कहता है कि प्रेम की पीड़ा के कारण उसका मन रोता है। अर्थात हृदय की व्यथा शब्द रूप में प्रकट हुई। उसके रोने को संसार गाना मान बैठता है। जब वेदना अधिक हो जाती है तो वह दुख को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है। संसार इस प्रक्रिया को छंद बनाना कहती है। कवि प्रश्न करता है कि यह संसार मुझे कवि के रूप में अपनाने के लिए तैयार क्यों है? वह स्वयं को नया दीवाना कहता है जो हर स्थिति में मस्त रहता है।

समाज उसे दीवाना क्यों नहीं स्वीकार करता। वह दीवानों का रूप धारण करके संसार में घूमता रहता है। उसके जीवन में जो मस्ती शेष रह गई है, उसे लिए वह घूमता रहता है। इस मस्ती को सुनकर सारा संसार झूम उठता है। कवि के गीतों की मस्ती सुनकर लोग प्रेम में झुक जाते हैं तथा आनंद से झूमने लगते हैं। मस्ती के संदेश को लेकर कवि संसार में घूमता है जिसे लोग गीत समझने की भूल कर बैठते हैं।

Sia ? 3 years, 7 months ago

एक गीत

  1. दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
    हो जाए न पथ में रात कहीं, 
    मंजिल भी तो है दूर नहीं-
    यह सोच थक7 दिन का पथी भी जल्दी-जल्दी चलता हैं!
    दिन जल्दी-जल्दी ढोलता हैं!

शब्दार्थ- ढलता-समाप्त होता। यथ-रास्ता। मजिल-लक्ष्य। यथ-यात्री।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित गीत ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!’ से उद्धृत है। ईसा के रविता हरवंशराय बच्न हैं। इसगत में कवने एक जवना की कुंता तथा प्रेमा की व्याकुलता क वर्णना किया है।
व्याख्या- कवि जीवन की व्याख्या करता है। वह कहता है कि शाम होते देखकर यात्री तेजी से चलता है कि कहीं रास्ते में रात न हो जाए। उसकी मंजिल समीप ही होती है इस कारण वह थकान होने के बावजूद भी जल्दी-जल्दी चलता है। लक्ष्य-प्राप्ति के लिए उसे दिन जल्दी ढलता प्रतीत होता है। रात होने पर पथिक को अपनी यात्रा बीच में ही समाप्त करनी पड़ेगी, इसलिए थकित शरीर में भी उसका उल्लसित, तरंगित और आशान्वित मन उसके पैरों की गति कम नहीं होने देता।

  1. बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
    नीड़ों से झाँक रहे होंगे-
    यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !
    दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

शब्दार्थ- प्रत्याशा-आशा। नीड़-घोंसला। पर-पंख। चचलता-अस्थिरता।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित गीत ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!’ से उद्धृत है। इस गीत के रचयिता हरिवंश राय बच्चन हैं। इस गीत में कवि ने एकाकी जीवन की कुंठा तथा प्रेम की व्याकुलता का वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि प्रकृति के माध्यम से उदाहरण देता है कि चिड़ियाँ भी दिन ढलने पर चंचल हो उठती हैं। वे शीघ्रातिशीघ्र अपने घोंसलों में पहुँचना चाहती हैं। उन्हें ध्यान आता है कि उनके बच्चे भोजन आदि की आशा में घोंसलों से बाहर झाँक रहे होंगे। यह ध्यान आते ही उनके पंखों में तेजी आ जाती है और वे जल्दी-जल्दी अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहती हैं।3.

  1. मुझसे मिलने को कौन विकल?
    मैं होऊँ किसके हित चंचला?
    यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विहवलता हैं!
    दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

शब्दार्थ- विकल-व्याकुल। हित-लिए, वास्ते। चंचल-क्रियाशील। शिथिल-ढीला। यद-पैर। उर-हृदय। विह्वलता-बेचैनी, भाव आतुरता।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित गीत ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ से उद्धृत है। इस गीत के रचयिता हरिवंश राय बच्चन हैं। इस गीत में कवि ने एकाकी जीवन की कुंठा तथा प्रेम की व्याकुलता का वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि इस संसार में वह अकेला है। इस कारण उससे मिलने के लिए कोई व्याकुल नहीं होता, उसकी उत्कंठा से प्रतीक्षा नहीं करता, वह भला किसके लिए भागकर घर जाए। कवि के मन में प्रेम-तरंग जगने का कोई कारण नहीं है। कवि के मन में यह प्रश्न आने पर उसके पैर शिथिल हो जाते हैं। उसके हृदय में यह व्याकुलता भर जाती है कि दिन ढलते ही रात हो जाएगी। रात में एकाकीपन और उसकी प्रिया की वियोग-वेदना उसे अशांत कर देगी। इससे उसका हृदय पीड़ा से बेचैन हो उठता है।

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Sayali Paradake 3 years, 6 months ago

Aatmparichay and din jaldi jaldi dhalta hai

Jaat Girl Khushbu 3 years, 7 months ago

आत्म परिचय। पतंग

Priyanshu Patalvanshi Priyanshu 3 years, 7 months ago

Aatmparichaya

Kirtan Kaushik 3 years, 7 months ago

Atmaparichay

Anurag Singh 3 years, 7 months ago

Madhushaala
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Balwant Kumar 3 years, 7 months ago

  1. beti bachao beti pdao
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  10. bharat ka sanvidhaan
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  13. himalya -bharat ka gaurav
  14. dhan ka sadupyog
  15. badte apradh
  16. internet
  17. fashion
  18. aaj ki yuva peedi
  19. mehngai ki samasya
  20. aaj ki nari
  21. loktantr ka mehtav
  22. jaativaad ka vish

Mayank Choudhary 3 years, 7 months ago

beti bachao beti pdao brashtachar satya ki shakti aatankvaad pradushn ka prakop anekta m ekta vivah ek samazik sansta swatch bharat abhiyan sahitya ka uddeshye bharat ka sanvidhaan
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Shagufta Jahan❤️ 3 years, 7 months ago

कवितावली' में उद्धृत छंदों के अध्ययन से पता चलता है कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है। उन्होंने समकालीन समाज का यथार्थपरक चित्रण किया है। ... पेट की आग का शमन ईश्वर ( राम ) भक्ति का मेघ ही कर सकता है

Bhavana Tiwari 3 years, 7 months ago

Tulsidaas ram ke daas bhav ya seva bgav ke bhakt the
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Akanksha Raj 3 years, 8 months ago

गोल्डस्िम्थ
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Pranjal Jain 3 years, 8 months ago

Narendra Modi
बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्ज़ा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने पिता के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं। ज़िन्दगी की दो ही सूरतें हैं। एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाए। दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज़ सुनाई देती है। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे ज़िन्दगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी ज़िन्दगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनन्द नहीं है? अगर रास्ता आगे ही निकल रहा हो तो फिर असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है। साहस की ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़िन्दगी होती है। ऐसी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पहचान यह हैं किे बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोसपड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। (क) गद्यांश में अकबर का उदाहरण क्यों दिया गया है? (2) (ख) पांडवों की विजय का क्या कारण था? (1) (ग) आशय स्पष्ट कीजिए – (2)
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Satish Verma 9 months ago

Hir aur Jhooth
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Shekhar Sahu 3 years, 8 months ago

gar
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Manshi Rawat 3 years, 9 months ago

Ye kaha se liya hai question
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Shaily Jain 3 years, 9 months ago

चांद सिंह का गुरू
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