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Soordas ke pad chapter ke sabhi para ki vyakhya
  • 4 answers

Yashika B. 4 years, 8 months ago

4. हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए। इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए। बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए। ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए। अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए। राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए। -->गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण तो किसी राजनीतिज्ञ की तरह हो गये हैं। स्वयं न आकर ऊधव को भेज दिया है ताकि वहाँ बैठे-बैठे ही गोपियों का सारा हाल जान जाएँ। एक तो वे पहले से ही चतुर थे और अब तो लगता है कि गुरु ग्रंथ पढ़ लिया है। कृष्ण ने बहुत अधिक बुद्धि लगाकर गोपियों के लिए प्रेम का संदेश भेजा है। इससे गोपियों का मन और भी फिर गया है और वह डोलने लगा है। गोपियों को लगता है कि अब उन्हें कृष्ण से अपना मन फेर लेना चाहिए, क्योंकि कृष्ण अब उनसे मिलना ही नहीं चाहते हैं। गोपियाँ कहती हैं, कि कृष्ण उनपर अन्याय कर रहे हैं। जबकि कृष्ण को तो राजधर्म पता होना चाहिए जो ये कहता है कि प्रजा को कभी भी सताना नहीं चाहिए।

Yashika B. 4 years, 8 months ago

3. हमारैं हरि हारिल की लकरी। मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी। जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री। सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी। सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी। यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी। --> गोपियाँ कहती हैं कि उनके लिए कृष्ण तो हारिल चिड़िया की लकड़ी के समान हो गये हैं। जैसे हारिल चिड़िया किसी लकड़ी को सदैव पकड़े ही रहता है उसी तरह उन्होंने नंद के नंदन को अपने हृदय से लगाकर पकड़ा हुआ है। वे जागते और सोते हुए, सपने में भी दिन-रात केवल कान्हा कान्हा करती रहती हैं। जब भी वे कोई अन्य बात सुनती हैं तो वह बात उन्हें किसी कड़वी ककड़ी की तरह लगती है। कृष्ण तो उनकी सुध लेने कभी नहीं आए बल्कि उन्हें प्रेम का रोग लगा के चले गये। वे कहती हैं कि उद्धव अपने उपदेश उन्हें दें जिनका मन कभी स्थिर नहीं रहता है। गोपियों का मन तो कृष्ण के प्रेम में हमेशा से अचल है।

Yashika B. 4 years, 8 months ago

2. मन की मन ही माँझ रही। कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही। अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही। चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही। ‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही। --> इस छंद में गोपियाँ अपने मन की व्यथा का वर्णन ऊधव से कर रहीं हैं। वे कहती हैं कि वे अपने मन का दर्द व्यक्त करना चाहती हैं लेकिन किसी के सामने कह नहीं पातीं, बल्कि उसे मन में ही दबाने की कोशिश करती हैं। पहले तो कृष्ण के आने के इंतजार में उन्होंने अपना दर्द सहा था लेकिन अब कृष्ण के स्थान पर जब ऊधव आए हैं तो वे तो अपने मन की व्यथा में किसी योगिनी की तरह जल रहीं हैं। वे तो जहाँ और जब चाहती हैं, कृष्ण के वियोग में उनकी आँखों से प्रबल अश्रुधारा बहने लगती है। गोपियाँ कहती हैं कि जब कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का पालन ही नहीं किया तो फिर गोपियों क्यों धीरज धरें।

Yashika B. 4 years, 8 months ago

1. ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी। पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी। प्रीति नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। ‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी। --> इन छंदों में गोपियाँ ऊधव से अपनी व्यथा कह रही हैं। वे ऊधव पर कटाक्ष कर रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऊधव तो कृष्ण के निकट रहते हुए भी उनके प्रेम में नहीं बँधे हैं। गोपियाँ कहती हैं कि ऊधव बड़े ही भाग्यशाली हैं क्योंकि उन्हें कृष्ण से जरा भी मोह नहीं है। ऊधव के मन में किसी भी प्रकार का बंधन या अनुराग नहीं है बल्कि वे तो कृष्ण के प्रेम रस से जैसे अछूते हैं। वे उस कमल के पत्ते की तरह हैं जो जल के भीतर रहकर भी गीला नहीं होता है। जैसे तेल से चुपड़े हुए गागर पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती है, ऊधव पर कृष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं हुआ है। ऊधव तो प्रेम की नदी के पास होकर भी उसमें डुबकी नहीं लगाते हैं और उनका मन पराग को देखकर भी मोहित नहीं होता है। गोपियाँ कहती हैं कि वे तो अबला और भोली हैं। वे तो कृष्ण के प्रेम में इस तरह से लिपट गईं हैं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं।
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