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Ask QuestionPosted by Hardavi Patel 3 years, 9 months ago
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Posted by Yadhukrishna Palakkal 4 years ago
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Palak Sahu 4 years ago
Sushil Jain 4 years ago
Posted by Ritvik Kumar 4 years ago
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Kashish Kumari 4 years ago
Sushil Jain 4 years ago
Posted by Ansh Verma 4 years ago
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Anushka Agarwal 4 years ago
Yogita Ingle 4 years ago
उस समय का तिब्बती समाज बड़ा ही सरल था। वहाँ के सीधे सादे लोग अजनबियों का भी स्वागत खुले दिल से करते थे। लेकिन डाकुओं द्वारा या अन्य लोगों द्वारा किसी की हत्या करना आम बात थी।
Posted by Umesh Yadav 4 years ago
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Palak Sahu 4 years ago
Posted by Kajal Saxena 4 years ago
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Kajal Saxena 3 years, 9 months ago
Posted by Sushil Jain 4 years ago
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Posted by Daksh Wadhwani 4 years ago
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Posted by Muskan Sharma 4 years ago
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Posted by Venkateswari Madana 4 years ago
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Posted by Kuldeep Dobwal 4 years ago
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Posted by Pankaj Nain 4 years ago
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Bhumika Sharma ✓ 4 years ago
Posted by Minhaz Rahman 4 years ago
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Yogita Ingle 4 years ago
जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता ने बच्ची को राख की ढ़ेर के रूप में पाया।
Posted by Adreena Giri Adreena Giri 4 years ago
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Yogita Ingle 4 years ago
इस कहानी में उस बुढ़िया के विषय में बताया गया है, जिसका बेटा मर गया है। धन के अभाव में बेटे की मृत्यु के अगले दिन ही वृद्धा को बाज़ार में खरबूज़े बेचने आना पड़ता है। बाज़ार के लोग उसकी मजबूरी को अनदेखा करते हुए, उस वृद्धा को बहुत भला-बुरा बोलते हैं। कोई घृणा से थूककर बेहया कह रहा था, कोई उसकी नीयत को दोष दे रहा था,कोई रोटी के टुकड़े पर जान देने वाली कहता, कोई कहता इसके लिए रिश्तों का कोई मतलब नहीं है, परचून वाला कहता,यह धर्म ईमान बिगाड़कर अंधेर मचा रही है, इसका खरबूज़े बेचना सामाजिक अपराध है। इन दिनों कोई भी उसका सामान छूना नहीं चाहता था। यदि उसके पास पैसे होते, तो वह कभी भी सूतक में सौदा बेचने बाज़ार नहीं जाती।
दूसरी ओर लेखक के पड़ोस में एक संभ्रांत महिला रहती थी जिसके बेटे की मृत्यु हो गई थी। उस महिला का पास शोक मनाने का असीमित समय था। अढ़ाई मास से पलंग पर थी,डॉक्टर सिरहाने बैठा रहता था।
लेखक दोनों की तुलना करना चाहता था। इस कहानी से स्पष्ट है कि दुख मनाने का अधिकार भी उनके पास है, जिनके पास पैसा हो। निर्धन व्यक्ति अपने दुख को अपने मन में ही रख लेते हैं। वह इसे प्रकट नहीं कर पाते। इसलिए इस पाठ का शीर्षक दुःख का अधिकार सार्थक है।
आशा करता हूँ की ये काम करेगा
Posted by Komal Kankariya 4 years ago
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Bhumika Sharma ✓ 4 years ago
Posted by Kajal Sharma 4 years ago
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Posted by Priyanshi Malik 4 years ago
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Kajal Sharma 4 years ago
Posted by Laxmipriya Pradhan 4 years ago
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Posted by Aman Sahu 4 years ago
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Palak Sahu 4 years ago
Posted by Aman Rawani 4 years ago
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Palak Sahu 4 years ago
Posted by Ram Pal 4 years ago
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Posted by Free Bhai 4 years ago
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Palak Sahu 4 years ago
Posted by Sukriti Pandey 4 years ago
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Madhur Bhandari 4 years ago
Posted by Divya Vikash 4 years ago
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Palak Sahu 4 years ago
Posted by Bharath Kumar 4 years ago
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Posted by Kaavya Joshi 4 years ago
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