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Ask QuestionPosted by Roshan Kumar 5 years, 2 months ago
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Posted by Roshan Kumar 5 years, 2 months ago
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Shumayla Rayeen ? 5 years, 2 months ago
Posted by Roshan Kumar 5 years, 2 months ago
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Posted by Aastha Rajput 5 years, 2 months ago
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Posted by Suraj Kumar 5 years, 2 months ago
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Posted by Shruti Shruti 5 years, 2 months ago
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Posted by Shivam Kumar 5 years, 2 months ago
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Posted by Jyoti Narwat 5 years, 2 months ago
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Posted by Sumit Kumar 5 years, 2 months ago
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Ziya Ziya 5 years, 2 months ago
Posted by Account Deleted 5 years, 3 months ago
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Posted by Roshan Kumar 5 years, 3 months ago
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Anjali Pal 5 years, 2 months ago
Posted by Roshan Kumar 5 years, 3 months ago
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Gaurav Seth 5 years, 3 months ago
पूर्वी जर्मनी में शिक्षा मुफ्त थी लेकिन पश्चिमी जर्मनी में शिक्षा पर खर्च करना पड़ता था; इस कारण जर्मन छात्र शिक्षा के लिए पूर्वी हिस्से में जाते और नौकरी के लिए पश्चिमी जर्मनी लौट आते थे. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब जर्मनी का विभाजन हो गया, तो सैंकड़ों कारीगर, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर और व्यवसायी प्रतिदिन पूर्वी बर्लिन को छोड़कर पश्चिमी बर्लिन जाने लगे.
एक अनुमान के अनुसार 1954 से 1960 के दौरान 738 यूनिवर्सिटी प्रोफेसर,15, 885 अध्यापक, 4,600 डॉक्टर और 15,536 इंजीनियर और तकनीकी विशेषज्ञ पूर्व से पश्चिमी जर्मनी चले गए. कुल मिला कर यह संख्या 36,759 के लगभग है. लगभग 11 हजार छात्रों ने भी बेहतर भविष्य की तलाश में पूर्वी जर्मनी छोड़कर पश्चिमी जर्मनी चले गए.
जितने लोगों ने पश्चिमी जर्मनी के लिए पलायन किया था उनको अच्छी शिक्षा पूर्वी जर्मनी में मिली थी. इस प्रतिभा पलायन के कारण पश्चिमी जर्मनी को फायदा मिलने लगा और पूर्वी जर्मनी को नुकसान होने लगा.
यहाँ पर यह बताना भी जरूरी है कि जो लोग पूर्वी जर्मनी छोड़ना चाहते थे उनके लिए पश्चिमी बर्लिन में आकर वहां से विमान द्वारा पश्चिमी जर्मनी में जाना आसान था. इसके अलावा 1950 और 1960 के दशक के शीत युद्ध के दौरान पश्चिमी देश; बर्लिन को पूर्वी ब्लॉक की जासूसी के लिए भी इस्तेमाल करते थे.
अब ऐसे हालातों में पूर्वी जर्मनी को इस पलायन और जासूसी को रोकने के लिए कुछ न कुछ उपाय तो करने ही थे. इन्हीं सब वजहों से परेशान होकर पूर्वी जर्मनी की समाजवादी सरकार ने 12 और 13 अगस्त, 1961 की रात में पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन की सीमा को बंद कर दिया था.
Posted by Guddu Kr 5 years, 3 months ago
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Posted by Puneet Bargujar 5 years, 3 months ago
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Gaurav Seth 5 years, 3 months ago
राजनीति एक ऐसी कहानी है जो शक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी आम आदमी की तरह हर समूह भी ताकत पाना और कायम रखना चाहता है। विश्व राजनीति में भी विभिन्न देश या देशों के समूह ताकत पाने और कायम रखने की लगातार कोशिश करते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जब एक राष्ट्र शक्तिशाली बन जाता है और दूसरे राष्ट्रों पर अपना प्रभाव जमाने लगता है, तो उसे एकध्रुवीय व्यवस्था कहते हैं, लेकिन इस शब्द का यहाँ प्रयोग करना सर्वथा गलत हैं, क्योंकि इसी को 'वर्चस्व' के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि विश्व राजनीति में एक देश का अन्य देशों पर प्रभाव होना ही 'वर्चस्व' कहलाता है।
सैन्य वर्चस्व: अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बड़ी-चढ़ी सैन्य शक्ति है। आज अमरीका की सैन्य शक्ति अपने आप में अनूठी है और बाकी देशों की तुलना में बेजोड। अनूठी इस अर्थ में कि आज अमरीका अपनी सैन्य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है। उदहारण के तौर पर, इराक पर हमला, 2011 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान के अलकायदा के ठिकानों पर हमला करने के लिए पाकिस्तान में सैन्य हवाई अड्डों का प्रयोग अमेरिकी वर्चस्व की ही उदहारण है जो आज तक भी अमेरिकी नियंत्रण में ही है।
ढाँचागत ताकत के रूप में वर्चस्व: वर्चस्व का यह अर्थ, इसके पहले अर्थ में बहुत अलग है। ढाँचागत वर्चस्व का अर्थ हैं वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मर्जी चलाना तथा अपने उपयोग की चीजों को बनाना व बनाए रखना। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि अमरीका का ढाँचागत क्षेत्र में भी वर्चस्व कायम है; जैसे छोटे-छोटे देशों के ऋणों में कटौती तथा उन पर अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाना आदि। अमरीका उसकी बात न मानने वाले देशों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाने में भी कामयाब रहता है।
सांस्कृतिक वर्चस्व: वर्चस्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष सांस्कृतिक पक्ष भी है। आज विश्व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्कृतिक मौजूदगी भी इसका एक कारण है। अमरीकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। वर्चस्व का यह सांस्कृतिक पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है। समय गुजरने के साथ हम उसके इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अब हम इसे इतना ही सहज मानते हैं जितना अपने आस-पास के पेडू-पक्षी या नदी को। जैसे भारतीय समाज में विचार एवं कार्यशैली की दृष्टि से बढ़ता खुलापन अमरीकी सांस्कृतिक प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।
Posted by Juhi Dubey 5 years, 3 months ago
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Juhi Dubey 5 years, 2 months ago
Posted by Sagufta Begum 5 years, 3 months ago
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Ziya Ziya 5 years, 2 months ago
Posted by Sagufta Begum 5 years, 3 months ago
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Posted by Anand Kumar 4 years, 3 months ago
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Danveer Rajora 4 years, 3 months ago
Posted by Naman Saxena 5 years, 3 months ago
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Gaurav Seth 5 years, 3 months ago
NIEO :- New International Economic Order is a economic system introduced to replace Bretton Wood System in 1970s by some developing countries through United Nations Conference on trade and development to promote their interests by improving their terms of trade.
Posted by Naman Saxena 5 years, 3 months ago
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Posted by Sonu Empire 5 years, 3 months ago
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Posted by Priyanshu Kharb 5 years, 3 months ago
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Posted by Education Way 5 years, 3 months ago
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Gaurav Seth 5 years, 3 months ago
भूटान और भारत गणराज्य के हिमालयी साम्राज्य के बीच द्विपक्षीय संबंध परंपरागत रूप से घनिष्ठ रहे हैं और दोनों देश एक 'विशेष संबंध' साझा करते हैं।
Explanation:
- 8 अगस्त, 1949 को भूटान और भारत ने मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए, दोनों देशों के बीच शांति और एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आह्वान किया। हालांकि, भूटान भारत को अपनी विदेश नीति को "निर्देशित" करने के लिए सहमत हो गया और दोनों देश विदेशी और रक्षा मामलों पर एक दूसरे से निकट से परामर्श करेंगे। संधि ने मुक्त व्यापार और प्रत्यर्पण प्रोटोकॉल भी स्थापित किया। विद्वानों का मानना है कि संधि का प्रभाव भूटान को एक संरक्षित राज्य में बनाना है, लेकिन एक रक्षक नहीं है, क्योंकि भूटान के पास अपनी विदेश नीति का संचालन करने की शक्ति है।
- कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा करने से दोनों राष्ट्र और भी करीब आ गए। 1958 में, तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भूटान का दौरा किया और भूटान की स्वतंत्रता के लिए भारत के समर्थन को दोहराया और बाद में भारतीय संसद में घोषणा की कि भूटान के खिलाफ किसी भी आक्रमण को भारत के खिलाफ आक्रामकता के रूप में देखा जाएगा।
- अगस्त 1959 में, भारत के राजनीतिक घेरे में एक अफवाह थी कि चीन सिक्किम और भूटान को 'मुक्त' करना चाहता था। नेहरू ने लोकसभा में कहा कि भूटान के क्षेत्रीय ईमानदार और सीमाओं की रक्षा करना भारत सरकार की ज़िम्मेदारी थी। [१२] इस कथन पर भूटान के प्रधानमंत्री ने तुरंत आपत्ति जताते हुए कहा कि भूटान भारत का रक्षक नहीं है और न ही इस संधि में किसी भी प्रकार की राष्ट्रीय रक्षा शामिल है।
- इस अवधि में भूटान को भारत की आर्थिक, सैन्य और विकास सहायता में बड़ी वृद्धि हुई, जिसने आधुनिकीकरण के एक कार्यक्रम में अपनी सुरक्षा को बढ़ाने के लिए शुरू किया था। जबकि भारत ने बार-बार भूटान को अपने सैन्य समर्थन को दोहराया, बाद में भारत ने पाकिस्तान के साथ दो-सामने युद्ध लड़ते हुए चीन के खिलाफ भूटान की रक्षा करने की क्षमता के बारे में चिंता व्यक्त की।
- अच्छे संबंधों के बावजूद, भारत और भूटान ने 1973 और 1984 के बीच की अवधि तक अपनी सीमाओं का विस्तृत सीमांकन पूरा नहीं किया। भारत के साथ सीमा सीमांकन की बातचीत ने आम तौर पर कई छोटे क्षेत्रों को छोड़कर असहमति का समाधान किया, जिसमें सरपंग और गीलेफग के बीच का मध्य क्षेत्र और भारतीय अरुणाचल प्रदेश के साथ पूर्वी सीमा शामिल है।
- भारत ने भूटान के साथ 1949 संधि पर फिर से बातचीत की और 2007 में मित्रता की एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए। नई संधि ने भूटान को व्यापक संप्रभुता के साथ विदेश नीति पर भारत का मार्गदर्शन लेने की आवश्यकता वाले प्रावधान को बदल दिया और हथियार आयात पर भारत की अनुमति प्राप्त करने के लिए भूटान की आवश्यकता नहीं थी। 2008 में, भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉ। मनमोहन सिंह ने भूटान का दौरा किया और लोकतंत्र के प्रति भूटान के कदम के लिए मजबूत समर्थन व्यक्त किया। भारत अन्य देशों के साथ भूटानी व्यापार के लिए 16 प्रवेश और निकास बिंदु (पीआरसी होने का एकमात्र अपवाद) की अनुमति देता है और 2021 तक भूटान से न्यूनतम 10,000 मेगावाट बिजली विकसित करने और आयात करने के लिए सहमत हुआ है।
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूटान के अपने समकक्ष लोतै शेरिंग से विभिन्न विषयों पर बातचीत की. इस दौरान दोनों नेताओं ने विभिन्न क्षेत्रों में द्विपक्षीय भागीदारी को और प्रगाढ़ बनाने के कदमों पर चर्चा की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूटान के प्रधानमंत्री लोतै शेरिंग के साथ प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता की. इस दौरान विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी बढ़ाने के कदमों पर चर्चा की गई।भूटान भारत की दो प्रमुख नीतियों- नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी और 'एक्ट-ईस्ट पॉलिसी' के केंद्र में रहा है। 2014 में सत्ता में आने के बाद, पीएम मोदी ने भूटान को अपनी विदेश यात्रा के लिए पहला देश चुना। भूटान के रणनीतिक स्थान ने भारत को पूर्वोत्तर में आतंकवादियों को बाहर निकालने में मदद की है, जिससे आंतरिक स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- भूटान भारत की दो प्रमुख नीतियों- "नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी" और 'एक्ट-ईस्ट पॉलिसी' के केंद्र में रहा है। 2014 में सत्ता में आने के बाद, पीएम मोदी ने भूटान को अपनी विदेश यात्रा के लिए पहला देश चुना। भूटान के रणनीतिक स्थान ने भारत को पूर्वोत्तर में आतंकवादियों को बाहर निकालने में मदद की है, जिससे आंतरिक स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- भूटान भारत का एकमात्र पड़ोसी है जो अभी तक चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) में शामिल नहीं हुआ है। 1990 के दशक के बाद से, भूटान ने छोटे डोकलाम क्षेत्र (शेष भारत के सुरक्षा चिंताओं के लिए संवेदनशील क्षेत्र में) के बदले में भूटान को बड़ी क्षेत्रीय रियायतें देते हुए चीनी ‘पैकेज डील’ को बार-बार ठुकरा दिया है।
- 2019 में, भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भूटान गए थे। दोनों देशों के बीच 9 समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए. जिसमें प्रमुख रूप से विमान दुर्घटना और घटना जांच पर समझौता, भारत की राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के साथ भूटान के नेशनल लीगल इंस्टीट्यूट के साथ समझौता, भूटान के जिग्मे सिंग्ये वांगचूक स्कूल ऑफ लॉ के साथ नेशन स्कूल ऑफ इंडिया विश्वविद्यालय के साथ समझौता ज्ञापन, सूचना प्रौद्योगिकी और टेलीकॉम विभाग, सूचना और संचार मंत्रालय और इसरो के बीच समझौता, राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क और ड्रूक रिसर्च एंड एजुकेशन नेटवर्क के बीच समझौता, चार विश्वविद्यालयों का रॉयल विश्वविद्यालय के साथ समझौता शामिल है।
Posted by Prapti Kourav 5 years, 3 months ago
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Posted by Prapti Kourav 5 years, 3 months ago
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Ilma Fayyaz Ahmed 5 years, 3 months ago
Yogita Ingle 5 years, 3 months ago
द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद सम्पूर्ण यूरोप की आर्थिक स्थिति में बहुत ही गिरावट देखी गयी जिससे वहां के नागरिकों का दैनिक जीवन निम्न स्तर का हो गया था | इसका लाभ उठाने के लिए सोवियत संघ ने ग्रीस और तुर्की पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहा वहां पर साम्यवाद की स्थापना करके विश्व के व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता था |
यदि सोवियत संघ तुर्की को जीत लेता तो उसका नियंत्रण काला सागर पर हो जाता जिससे आस- पास के सभी देशों पर साम्यवाद की स्थापना करना आसान हो जाता है, इसके साथ ही सोवियत संघ ग्रीस पर भी अपना नियंत्रण करना चाहता था | जिससे वह भूमध्य सागर के रास्ते होने वाले व्यापार को प्रभावित कर सकता था | सोवियत संघ की इस विस्तार वादी सोच को अमेरिका ने अच्छी तरह से समझ लिया | उस समय अमेरिका के 33 वें राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन थे, जिन्होंने फ्रैंकलिन डेलानो रूज़वेल्ट के अकस्मात निधन के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे |
Posted by Prapti Kourav 5 years, 3 months ago
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Manisha Kumari 5 years, 3 months ago
Posted by Bharati Gahlot 5 years, 3 months ago
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Manisha Kumari 5 years, 3 months ago

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