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अट नहीं रही है कविता के आधार पर फागुन में उम्र के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए

Yogita Ingle 5 years ago

महाराज जनेक द्वारा आयोजित धनुष यज्ञ में जिस धनुष को राम ने तोड़ा, वह परशुराम के गुरु भगवान शिव का धनुष था।

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Yogita Ingle 5 years ago

गोपियों के दृष्टि में योग उस कड़वी ककड़ी के सामान है जिसे निगलना बड़ा ही मुश्किल है। सूरदास जी गोपियों के माध्यम से आगे कहते हैं कि उनके विचार में योग एक ऐसा रोग है जिसे उन्होंने न पहले कभी देखा, न कभी सुना। 

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गोपियों ने योग की तुलना कड़वी ककड़ी समान की |

Yogita Ingle 5 years ago

गोपियों के दृष्टि में योग उस कड़वी ककड़ी के सामान है जिसे निगलना बड़ा ही मुश्किल है। सूरदास जी गोपियों के माध्यम से आगे कहते हैं कि उनके विचार में योग एक ऐसा रोग है जिसे उन्होंने न पहले कभी देखा, न कभी सुना। 

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Gaurav Seth 5 years ago

यह पाठ मधु कांकरिया द्वारा लिखा एक यात्रा वृत्तांत है जिसमें लेखिका ने सिक्किम की राजधानी गैंगटॉक और उसके आगे हिमालय की यात्रा का वर्णन किया है जो शहरों की भागमभाग भरी ज़िं दगी से दूर है| लेखिका गैंगटॉक को मेहनती बादशाहों का शहर बताती हैं क्योंकि वहाँ के सभी लोग बड़े ही मेहनती हैं। वहाँ तारों से भरे आसमान में लेखिका को सम्मोहन महसूस होता है जिसमें वह खो जाती हैं। वह नेपाली युवती द्वारा बताई गई प्रार्थना ‘मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो’ को गाती हैं|

अगले दिन मौसम साफ न होने के कारण लेखिका कंचनजंघा की चोटी तो नहीं देख सकी, परंतु ढेरों खिले फूल देखकर खुश हो जाती हैं। वह उसी दिन गैंगटाॅक से 149 किलोमीटर दूर यूमथांग देखने अपनी सहयात्री मणि और गाइड जितेन नार्गे के साथ रवाना होती हैं। गंगटोक से यूमथांग को निकलते ही लेखिका को एक कतार में लगी सफेद-सफेद बौद्ध पताकाएँ दिखाई देती हैं जो ध्वज की तरह फहरा रही थीं। ये शान्ति और अहिंसा की प्रतीक थीं और उन पताकाओं पर मंत्र लिखे हुए थे। लेखिका के गाइड ने उन्हें बताया कि जब किसी बौद्ध मतावलम्बी की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी भी पवित्र स्थान पर एक सौ आठ श्वेत पताकाएँ फहरा दी जाती हैं। इन्हें उतारा नहीं जाता है, ये खुद नष्ट हो जाती हैं। कई बार नए शुभ कार्य की शुरुआत में भी रंगीन पताकाएँ फहरा दी जाती हैं। जितेन ने बताया कि कवी-लोंग स्टॉक नामक स्थान पर 'गाइड' फ़िल्म की शूटिंग हुई थी। आगे चलकर मधु जी को एक कुटिया के भीतर घूमता हुआ चक्र दिखाई दिया जिसे धर्म चक्र या प्रेयर व्हील कहा जाता है। नार्गे ने बताया कि इसे घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं। जैसे-जैसे वे लोग ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे, वैसे-वैसे बाजार, लोग और बस्तियाँ आँखों से ओझल होने लगी। घाटियों में देखने पर सबकुछ धुंधला दिखाई दे रहा था। उन्हें हिमालय पल-पल परिवर्तित होते महसूस होता है| वह विशाल लगने लगता है|

'सेवन सिस्टर्स वॉटर फॉल' पर जीप रुकती है। सभी लोग वहाँ की सुंदरता को कैमरे में कैद करने लग जाते हैं| झरने का पानी में लेखिका को ऐसा लग रहा था जैसे वह उनके अंदर की सारी बुराईयाँ और दुष्टता को भाकर ले जा रहा हो| रास्ते में प्राकृतिक दृश्य पलपल अपना रंग ऐसे बदल रहे थे जैसे कोई जादू की छड़ी घुमाकर सबकुछ बदल रहा था। थोड़ी देर के लिए जीप 'थिंक ग्रीन' लिखे शब्दों के पास रुकी। वहाँ सभी कुछ एक साथ सामने था। लगातार बहते झरने थे, नीचे पूरे वेग से बह रही तिस्ता नदी थी, सामने धुंध थी, ऊपर आसमान में बादल थे और धीरेधीरे हवा चल रही थी, जो आस-पास के वातावरण में खिले फूलों की हँसी चारों ओर बिखेर रही थी। कुछ औरतों की पीठ पर बँधी टोकरियों में बच्चे थे। इतने सुंदर वातावरण में भूख, गरीबी और मौत के निर्मम दृश्य ने लेखिका को सहमा दिया। एक कर्मचारी ने बताया कि ये पहाडिनें पहाड़ी रास्ते को चौड़ा बना रही हैं। कई बार काम करते समय किसी-न-किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है क्योंकि जब पहाड़ों को डायनामाइट से उड़ाया जाता है तो उनके टुकड़े इधर-उधर गिरते हैं। यदि उस समय सावधानी न बरती जाए, तो जानलेवा हादसा घट जाता है। लेखिका को लगता है कि सभी जगह आम जीवन की कहानी एक-सी है।

आगे चलने पर रास्ते में बहुत सारे पहाड़ी स्कूली बच्चे मिलते हैं। जितेन बताता है कि ये बच्चे तीन-साढ़े तीन किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई चढ़कर स्कूल जाते हैं। ये बच्चे स्कूल से लौटकर अपनी माँ के साथ काम करते हैं। यहाँ का जीवन बहुत कठोर है। जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे खतरे भी बढ़ते जा रहे थे। रास्ता तंग होता जा रहा था। सरकार की 'गाड़ी धीरे चलाएँ' की चेतावनियों के बोर्ड लगे थे। शाम के समय जीप चाय बागानों में से गुजर रही थी। बागानों में कुछ युवतियाँ सिक्किमी परिधान पहने चाय की पत्तियाँ तोड़ रही थीं। चारों ओर इंद्रधनुषी रंग छटा बिखेर रहे थे। यूमथांग पहुंचने से पहले वे लोग लायुंग रुके। लायुंग में लकड़ी से बने छोटे-छोटे घर थे। लेखिका सफ़र की थकान उतारने के लिए तिस्ता नदी के किनारे फैले पत्थरों पर बैठ गई। रात होने पर जितेन के साथ अन्य साथियों ने नाच-गाना शुरू कर दिया था। लेखिका की सहयात्री मणि ने बहुत सुंदर नृत्य किया। लायुंग में अधिकतर लोगों की जीविका का साधन पहाड़ी आलू, धान की खेती और शराब था। लेखिका को वहाँ बर्फ़ देखने की इच्छा थी परंतु वहाँ बर्फ कहीं भी नहीं थी|

 

एक स्थानीय युवक के अनुसार प्रदूषण के कारण यहाँ स्नोफॉल कम हो गया था। 'कटाओ' में बर्फ़ देखने को मिल सकती है। कटाओ' को भारत का स्विट्जरलैंड कहा जाता है। मणि जिसने स्विट्ज़रलैंड घुमा था ने कहा कि यह स्विट्जरलैंड से भी सुंदर है। कटाओ को अभी तक टूरिस्ट स्पॉट नहीं बनाया गया था, इसलिए यह अब तक अपने प्राकृतिक स्वरूप में था। लायुंग से कटाओ का सफ़र दो घंटे का था। कटाओ का रास्ता खतरनाक था। जितेन अंदाज से गाड़ी चला रहा था। चारों ओर बर्फ से भरे पहाड़ थे। कटाओ पहुँचने पर हल्की -हल्की बर्फ पड़ने लगी थी। सभी सहयात्री वहाँ के वातावरण में फोटो खिंचवा रहे थे। लेखिका वहाँ के वातावरण को अपनी साँसों में समा लेना चाहती थी। उसे लग रहा था कि यहाँ के वातावरण ने ही ऋषियोंमुनियों को वेदों की रचना करने की प्रेरणा दी होगी। ऐसे असीम सौंदर्य को यदि कोई अपराधी भी देख ले, तो वह भी आध्यात्मिक हो जाएगा। मणि के मन में भी दार्शनिकता उभरने लगी थी। वे कहती हैं कि - प्रकृति अपने ढंग से सर्दियों में हमारे लिए पानी इकट्ठा करती है और गर्मियों में ये बर्फ शिलाएँ पिघलकर जलधारा बनकर हम लोगों की प्यास को शांत करती हैं। प्रकृति का यह जल संचय अद्भुत है। इस प्रकार नदियों और हिमशिखरों का हम पर ऋण है।

 

थोड़ा आगे जाने पर फ़ौजी छावनियाँ दिखाई दी चूँकि यह बॉर्डर एरिया था और थोड़ी ही दूर पर चीन की सीमा थी। लेखिका फ़ौजियों को देखकर उदास हो गई। वैशाख के महीने में भी वहाँ बहुत ठंड थी। वे लोग पौष और माघ की ठंड में किस तरह रहते होंगे? वहाँ जाने का रास्ता भी बहुत खतरनाक था। कटाओं से यूमथांग की ओर जाते हुए प्रियुता और रूडोडेंड्रो ने फूलों की घाटी को भी देखा। यूमथांग कटाओ जैसा सुंदर नहीं था। जितेन ने रास्ते में बताया कि यहाँ पर बंदर का माँस भी खाया जाता है। बंदर का माँस खाने से कैंसर नहीं होता। यूमथांग वापस आकर उन लोगों को वहाँ सब फीका-फीका लग रहा था। पहले सिक्किम स्वतंत्र राज्य था। अब वह भारत का एक हिस्सा बन गया है। इससे वहाँ के लोग बहुत खुश हैं। 

 

मणि ने बताया कि पहाड़ी कुत्ते केवल चाँदनी रातों में भौंकते हैं। यह सुनकर लेखिका हैरान रह गई। उसे लगा कि पहाड़ी कुत्तों पर भी ज्वारभाटे की तरह पूर्णिमा की चाँदनी का प्रभाव पड़ता है। गुरुनानक के पदचिह्नों वाला एक ऐसा पत्थर दिखाया, जहाँ कभी उनकी थाली से चावल छिटककर बाहर गिर गए थे। खेदुम नाम का एक किलोमीटर का ऐसा क्षेत्र भी दिखाया, जहाँ देवी-देवताओं का निवास माना जाता है। नार्गे ने पहाड़ियों के पहाड़ों, नदियों, झरनों और वादियों के प्रति पूज्य भाव की भी जानकारी दी। भारतीय आर्मी के कप्तान शेखर दत्ता के सुझाव पर गैंगटाॅक के पर्यटक स्थल बनने और नए रास्तों के साथ नए स्थानों को खोजने के प्रयासों के बारे में भी बताया|

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Gaurav Seth 5 years ago

रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।रस का सम्बन्ध 'सृ' धातु से माना गया है। जिसका अर्थ है - जो बहता है, अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है उसी को रस कहते है।

रस के ग्यारह भेद होते है- (1) शृंगार रस (2) हास्य रस (3) करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) बीभत्स रस (8) अदभुत रस (9) शान्त रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस ।

श्रृंगार रस  

नायक नायिका के सौंदर्य तथा प्रेम संबंधी वर्णन को श्रंगार रस कहते हैं श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। इसका स्थाई भाव रति होता है नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस कि अवस्था में पहुँच जाता है तो वह श्रंगार रस कहलाता है इसके अंतर्गत सौन्दर्य, प्रकृति, सुन्दर वन, वसंत ऋतु, पक्षियों का चहचहाना आदि के बारे में वर्णन किया जाता है। श्रृंगार रस – इसका स्थाई भाव रति है

उदाहरण -
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात,

भरे भौन में करत है, नैननु ही सौ बात

श्रंगार के दो भेद होते हैं

संयोग श्रृंगार

जब नायक नायिका के परस्पर मिलन, स्पर्श, आलिगंन, वार्तालाप आदि का वर्णन होता है, तब संयोग शृंगार रस होता है।

उदाहरण -
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय।

वियोग श्रृंगार 

जहाँ पर नायक-नायिका का परस्पर प्रबल प्रेम हो लेकिन मिलन न हो अर्थात् नायक – नायिका के वियोग का वर्णन हो वहाँ वियोग रस होता है। वियोग का स्थायी भाव भी ‘रति’ होता है।

जैसे

निसिदिन बरसत नयन हमारे,

सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥

हास्य रस

हास्य रस मनोरंजक है। हास्य रस नव रसों के अन्तर्गत स्वभावत: सबसे अधिक सुखात्मक रस प्रतीत होता है। हास्य रस का स्थायी भाव हास है। इसके अंतर्गत वेशभूषा, वाणी आदि कि विकृति को देखकर मन में जो प्रसन्नता का भाव उत्पन्न होता है, उससे हास की उत्पत्ति होती है इसे ही हास्य रस कहते हैं।

हास्य दो प्रकार का होता है -: आत्मस्थ और परस्त

आत्मस्थ हास्य केवल हास्य के विषय को देखने मात्र से उत्पन्न होता है ,जबकि परस्त हास्य दूसरों को हँसते हुए देखने से प्रकट होता है।  

 

उदाहरण -
बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय। 
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय।

नया उदाहरण-

मैं ऐसा महावीर हूं,

पापड़ तोड़ सकता हूँ।

अगर गुस्सा आ जाए,

तो कागज को मरोड़ सकता हूँ।।

करुण रस

इसका स्थायी भाव शोक होता है। इस रस में किसी अपने का विनाश या अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव विछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं ।यधपि वियोग श्रंगार रस में भी दुःख का अनुभव होता है लेकिन वहाँ पर दूर जाने वाले से पुनः मिलन कि आशा बंधी रहती है।

अर्थात् जहाँ पर पुनः मिलने कि आशा समाप्त हो जाती है करुण रस कहलाता है। इसमें निःश्वास, छाती पीटना, रोना, भूमि पर गिरना आदि का भाव व्यक्त होता है।

या किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है।

उदाहरण -

रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के।
ग्लानि, त्रास, वेदना - विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके।।

वीर रस

जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है। इस रस के अंतर्गत जब युद्ध अथवा कठिन कार्य को करने के लिए मन में जो उत्साह की भावना विकसित होती है उसे ही वीर रस कहते हैं। इसमें शत्रु पर विजय प्राप्त करने, यश प्राप्त करने आदि प्रकट होती है इसका स्थायी भाव उत्साह होता है। 

सामान्यत: रौद्र एवं वीर रसों की पहचान में कठिनाई होती है। इसका कारण यह है कि दोनों के उपादान बहुधा एक - दूसरे से मिलते-जुलते हैं। कभी-कभी रौद्रता में वीरत्व तथा वीरता में रौद्रवत का आभास मिलता है,लेकिन रौद्र रस के स्थायी भाव क्रोध तथा वीर रस के स्थायी भाव उत्साह में अन्तर स्पष्ट है।

उदाहरण -

बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।।

आद्याचार्य भरतमुनि ने वीर रस के तीन प्रकार बताये हैं –

दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर ।

- युद्धवीर

युद्धवीर का आलम्बन शत्रु, उद्दीपन शत्रु के पराक्रम इत्यादि, अनुभाव गर्वसूचक उक्तियाँ, रोमांच इत्यादि तथा संचारी धृति, स्मृति, गर्व, तर्क इत्यादि होते हैं।

- दानवीर

दानवीर के आलम्बन तीर्थ, याचक, पर्व, दानपात्र इत्यादि तथा उद्दीपन अन्य दाताओं के दान, दानपात्र द्वारा की गई प्रशंसा इत्यादि होते हैं। 

- धर्मवीर

धर्मवीर में वेद शास्त्र के वचनों एवं सिद्धान्तों पर श्रद्धा तथा विश्वास आलम्बन, उनके उपदेशों और शिक्षाओं का श्रवण-मनन इत्यादि उद्दीपन, तदनुकूल आचरण अनुभाव तथा धृति, क्षमा आदि धर्म के दस लक्षण संचारी भाव होते हैं। धर्मधारण एवं धर्माचरण के उत्साह की पुष्टि इस रस में होती है।

रौद्र रस

इसका स्थायी भाव क्रोध होता है। जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं।इसमें क्रोध के कारण मुख लाल हो जाना, दाँत पिसना, शास्त्र चलाना, भौहे चढ़ाना आदि के भाव उत्पन्न होते हैं।

काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स, इन चार रसों को ही प्रधान माना है, अत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पत्ति बतायी है। 

उदाहरण -

श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।

सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥

संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।

करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥ 

अद्भुत रस

जब ब्यक्ति के मन में विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर जो विस्मय आदि के भाव उत्पन्न होते हैं उसे ही अदभुत रस कहा जाता है इसके अन्दर रोमांच, औंसू आना, काँपना, गद्गद होना, आँखे फाड़कर देखना आदि के भाव व्यक्त होते हैं। इसका स्थायी भाव आश्चर्य होता है।

उदाहरण -

देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया।

क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया॥ 

भयानक रस

जब किसी भयानक या बुरे व्यक्ति या वस्तु को देखने या उससे सम्बंधित वर्णन करने या किसी दुःखद घटना का स्मरण करने से मन में जो व्याकुलता अर्थात परेशानी उत्पन्न होती है उसे भय कहते हैं उस भय के उत्पन्न होने से जिस रस कि उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते हैं इसके अंतर्गत कम्पन, पसीना छूटना, मुँह सूखना, चिन्ता आदि के भाव उत्पन्न होते हैं। इसका स्थायी भाव भय होता है।

उदाहरण -
अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल॥ 

कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार ॥ 

 

उदाहरण -
एक ओर अजगर हिं लखि, एक ओर मृगराय॥ 

विकल बटोही बीच ही, पद्यो मूर्च्छा खाय॥ 

भयानक रस के दो भेद हैं-

  1. स्वनिष्ठ

  2. परनिष्ठ

 

स्वनिष्ठ भयानक वहाँ होता है, जहाँ भय का आलम्बन स्वयं आश्रय में रहता है और परनिष्ठ भयानक वहाँ होता है, जहाँ भय का आलम्बन आश्रय में वर्तमान न होकर उससे बाहर, पृथक् होता है, अर्थात् आश्रय स्वयं अपने किये अपराध से ही डरता है। 

बीभत्स रस

इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है । घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कि पुष्टि करती है दुसरे शब्दों में वीभत्स रस के लिए घृणा और जुगुप्सा का होना आवश्यक होता है।

वीभत्स रस काव्य में मान्य नव रसों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसकी स्थिति दु:खात्मक रसों में मानी जाती है। इसके परिणामस्वरूप घृणा, जुगुप्सा उत्पन्न होती है।इस दृष्टि से करुण, भयानक तथा रौद्र, ये तीन रस इसके सहयोगी या सहचर सिद्ध होते हैं। शान्त रस से भी इसकी निकटता मान्य है, क्योंकि बहुधा बीभत्सता का दर्शन वैराग्य की प्रेरणा देता है और अन्तत: शान्त रस के स्थायी भाव शम का पोषण करता है।

साहित्य रचना में इस रस का प्रयोग बहुत कम ही होता है। तुलसीदास ने रामचरित मानस के लंकाकांड में युद्ध के दृश्यों में कई जगह इस रस का प्रयोग किया है। उदाहरण- मेघनाथ माया के प्रयोग से वानर सेना को डराने के लिए कई वीभत्स कृत्य करने लगता है, जिसका वर्णन करते हुए तुलसीदास जी लिखते है-

'विष्टा पूय रुधिर कच हाडा

बरषइ कबहुं उपल बहु छाडा'

(वह कभी विष्ठा, खून, बाल और हड्डियां बरसाता था और कभी बहुत सारे पत्थर फेंकने लगता था।)

उदाहरण -

आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे

शान्त रस

मोक्ष और आध्यात्म की भावना से जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसको शान्त रस नाम देना सम्भाव्य है। इस रस में तत्व ज्ञान कि प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर, परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शान्ति मिलती है। वहाँ शान्त रस कि उत्पत्ति होती है जहाँ न दुःख होता है, न द्वेष होता है। मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है शान्त रस कहा जाता है। इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) होता है।

शान्त रस साहित्य में प्रसिद्ध नौ रसों में अन्तिम रस माना जाता है - "शान्तोऽपि नवमो रस:।" इसका कारण यह है कि भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में, जो रस विवेचन का आदि स्रोत है, नाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वर्णन मिलता है।

उदाहरण -

जब मै था तब हरि नाहिं अब हरि है मै नाहिं
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं

वत्सल रस

इसका स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है। माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है।

उदाहरण -

बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवाति
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति

भक्ति रस

इसका स्थायी भाव देव रति है। इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है।

उदाहरण -

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई

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Good Day 4 years, 11 months ago

परिमल एक कविता संग्रह है । इसकी रचना सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' ने की है इसको पहली बार सन् 1929 में प्रकाशित किया गया था।
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Prayah Sundar Stri Apnni sundarta ki prashansa sun kar prasann Ho uthti Hai FIR prashansa ke bandhan Mein Bandhi Rahkar ladki Bankar hi Rahana padta hai ise Apna sarvaswa man Ghar Ki Char Diwari Mein Avadh rahti hai
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Yogita Ingle 5 years ago

जैसे हम अपना परिचय देते हैं, ठीक उसी प्रकार एक वाक्य में जितने शब्द होते हैं, उनका भी परिचय हुआ करता है। वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक सार्थक शब्द को पद कहते है तथा उन शब्दों के व्याकरणिक परिचय को पद-परिचय, पद-व्याख्या या पदान्वय कहते है।
व्याकरणिक परिचय से तात्पर्य है - वाक्य में उस पद की स्थिति बताना, उसका लिंग, वचन, कारक तथा अन्य पदों के साथ संबंध बताना।

जैसे -
राजेश ने रमेश को पुस्तक दी।
राजेश = संज्ञा, व्यक्तिवाचक, पुल्लिंग, एकवचन, ‘ने’के साथ कर्ता कारक, द्विकर्मक क्रिया ‘दी’के साथ।
रमेश = संज्ञा, व्यक्तिवाचक, पुल्लिंग, एकवचन, कर्म कारक।
पुस्तक = संज्ञा, जातिवाचक, स्त्रीलिंग, एकवचन, कर्मकारक।

 

Arushi Patidar 5 years ago

पद परिचय को कैसे समझे
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Payal Dhankhar 5 years ago

Aanand Ki anubutti

Sukul Kumar 5 years ago

Juice,extract
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Gaurav Seth 5 years ago

कवि ने बादल को अनंत घन इसलिए कहा है ,क्योंकि बादलों का कभी अंत नहीं होता है। वे निरंतर बनते रहते हैं। 

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Yogita Ingle 5 years ago

जार्ज पंचम की नाक लगने वाली खबर के दिन पत्रकारों को शायद अपनी बड़ी भूल का अहसास हो गया था। उस दिन केवल एक गुमनाम आदमी की नाक नहीं कटी थी बल्कि पूरे हिंदुस्तान की नाक कट गई थी। जिन अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए हजारों जिंदगियाँ कुर्बान हो गईं, उसी में से एक की बेजान बुत की नाक बचाने के लिए हमने अपनी नाक कटवा ली। इसलिए उस दिन शर्म से अखबार वाले चुप थे।

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Varun Agarwal 5 years ago

Gaurav ji isme Assam ka bhi hai kya?

Rajat Mahananda 5 years ago

Thanks

Gaurav Seth 5 years ago

राजस्थान कला और संस्कृति
भारतीय कला के विकास में राजस्थान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. आवास और अन्य घरेलू वस्तुओं के सजावट थी लेकिन राजस्थानी के रचनात्मक प्रतिभा का एक पहलू – लघु चित्रों की दुनिया में शायद सबसे आकर्षक है और यहां अस्तित्व में है कि विशिष्ट शैली दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. 16 वीं सदी के बाद से वहाँ मेवाड़ स्कूल, बूंदी, कोटा कलाम, जयपुर, बीकानेर, Kishengarh और मारवाड़ स्कूलों की तरह चित्रों के विभिन्न स्कूलों निखरा.

 Jewellery & Gemsआभूषण और रत्न
राजस्थान, पुरुषों और महिलाओं को पारंपरिक रूप से हार, बाजूबंद, पायल, कान की बाली और अंगूठी पहनी थी. मुगल साम्राज्य के आगमन के साथ, राजस्थान के आभूषणों के बेहतरीन प्रकार के उत्पादन के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया. यह राजस्थानी शिल्प कौशल के साथ मुगल की एक सच्ची मिश्रण था. मुगलों them.Jewellery और रत्न के साथ फारसियों के परिष्कृत डिजाइन और तकनीकी पता है कि कैसे लाया

 Art Galleries & Museumsआर्ट गैलरी और संग्रहालय
राजस्थान – कला और शिल्प, अद्वितीय नृत्य और संगीत की परंपराओं के unrivalledform के विशाल किलों, विशाल महलों और बारीक नक्काशी मंदिरों ofcolourful जनजातियों और बहादुर योद्धा के भूमि, तेजी से बदल रहा है. बड़े और छोटे शहरों, पुरातात्विक स्थलों और पुराने राज्यों के तत्कालीन शासकों के महलों में हाल ही में खोला संग्रहालयों और कला दीर्घाओं में संग्रहालय के अपने विशाल नेटवर्क भावी पीढ़ी के लिए इस महान विरासत की रक्षा करने के लिए मदद करते हैं.

 Folk Dance and Musicलोक नृत्य और संगीत
Turru और Kalangi के प्रतिद्वंद्वी बैनर के नीचे लिखा है, जो लोकप्रिय कविता, के एक महान परंपरा है. यह है एक Jikri, Kanhaiyya या गीत (Meenas के), Hele-ke-Khyal और पूर्वी राजस्थान के बैम Rasiya में समूहों में गाया. समूह शास्त्रीय bandishes के गायन, Dangal या taalbandi भी इस क्षेत्र के लिए अद्वितीय है कहा जाता है. Bhopas विभिन्न देवताओं या माताजी पहनने वेशभूषा के योद्धा saints.The Bhopas के पुजारियों गायन और mashak निभा रहे हैं.

 Fairs & Festivalsमेले और उत्सव
रंग और खुशी के समारोह के लिए राजस्थानी के प्यार विस्तृत रस्में और वह कई मेलों और क्षेत्र के त्योहारों के लिए खुद को समर्पण के साथ जो समलैंगिक त्याग करके साबित कर दिया है. हिंदुओं, मुसलमानों और अन्य लोगों द्वारा मनाया त्योहारों के अलावा, पारंपरिक मेलों भी कर रहे हैं.

Varun Agarwal 5 years ago

Please bata de?
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Yogita Ingle 5 years ago

लखनवी अंदाज़ कहानी में लेखक यशपाल जी ने व्यंगात्मक दृष्टि से नयी कहानी पर व्यंग किया है। कहानी में एक नबाब साहब साहब और उनके द्वारा खीरे काट कर खिड़की से फेंकने को आधार बनाकर अपने विचार व्यक्त . नबाब साहब सिर्फ खीरे को सूँघ कर संतुष्ट होने का दिखावा करते हैं। अतः लेखक ने ऐसे वर्ग पर व्यंग साधा है।

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Yogita Ingle 5 years ago

इस कथन का आशय यह है कि बालगोबिन भगत के गाए हुए पदों को दोहराते समय लोग इतने मग्न हो जाते थे कि वे अपने तन की सुध भूल कर मन से भक्ति रस में डूब जाते थे। उन्हें दीन-दुनिया की सुध ही नहीं रहती थी। वे मनोलोक में विचरण करने लगते थे।

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Ranvijay Kumar 5 years ago

11

Richa Shukla 5 years ago

रस के 11 भेद होते हैं - * श्रृंगार रस *हास्य रस *रौद्र रस *करुण रस *वीर रस *अद्भुत रस *वीभत्स रस *भयानक रस *शांत रस *वात्सल्य रस *भक्ति रस

Sanjay Sharma 5 years ago

Ras kay 4 ang h
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Richa Shukla 5 years ago

Unka uddeshya lekhak ko neecha deekhana tha. Nawab sahab lekhak ko yah jatana chahte the ki yah hai khandani raeeso ka tarika
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Gaurav Seth 5 years ago

इस कविता का मूल भाव यह है कि जीवन एक संघर्ष के समान है, जिसे कवि अग्निपथ मानता है। इस मार्ग पर आत्मविश्वास के साथ मनुष्य को आगे बढ़ना है। किसी के सहारे की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इस मार्ग पर कदम-कदम पर चुनौतियों और कष्टों से सामना होता है। मनुष्य को चाहिए कि वह इन चुनौतियों से न घबराए। कष्टों से विचलित नहीं होते हुए भी अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे। उसकी क्रिया में गतिशीलता होनी चाहिए जिसमें रचने, थकने या पीछे मुड़कर देखने का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इस मार्ग पर चलते हुए आँसू, पसीना बहाकर तथा खून से लथपथ होकर भी उसे निरंतर संघर्ष करते रहना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति संघर्ष से पीछे नहीं हटता वहीं जीवन में सफलता प्राप्त करता है।

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Tanu Man 5 years ago

Given in this app alredy
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Om Deshmukh 5 years ago

Khud dekh le

Yogita Ingle 5 years ago

अशोक ने विश्व को शांति का संदेश दिया ।

►वाच्य का भेद ▬ (क) कर्तृवाच्य

 

वाच्य क्रिया के उस रूप को कहते हैं, जिससे वाक्य की कर्ता प्रधानता, कर्म प्रधानता अथवा भाव प्रधानता का बोध होता है। इसी के आधार पर क्रिया के लिंग और वचन निर्धारित होते हैं।  

वाच्य के तीन भेद होते हैं.  

  • कर्तृवाच्य  
  • कर्मवाच्य  
  • भाववाच्य  

कर्त वाच्य...  

राम विद्यालय जाता है।  

कर्म वाच्य...

राम द्वारा विद्यालय जाया जाता है।  

भाव वाच्य...

राम से विद्यालय जाया जाता है।

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Om Deshmukh 4 years, 11 months ago

Abe khud dekh le or khud homework kar ?

Yogita Ingle 5 years ago

गोपियाँ उद्धव को भाग्यवान कहते हुए व्यंग्य कसती है कि श्री कृष्ण के सानिध्य में रहते हुए भी वे श्री कृष्ण के प्रेम से सर्वथा मुक्त रहे। वे कैसे श्री कृष्ण के स्नेह व प्रेम के बंधन में अभी तक नहीं बंधे?, श्री कृष्ण के प्रति कैसे उनके हृदय में अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ? अर्थात् श्री कृष्ण के साथ कोई व्यक्ति एक क्षण भी व्यतीत कर ले तो वह कृष्णमय हो जाता है। परन्तु ये उद्धव तो उनसे तनिक भी प्रभावित नहीं है प्रेम में डूबना तो अलग बात है।

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Gaurav Seth 5 years ago

बालगोबिन भगत मंझोले कद के गोर-चिट्टे आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से उपर थी और बाल पक गए थे। वे लम्बी ढाढ़ी नही रखते थे और कपडे बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। सर्दियों में ऊपर से कम्बल ओढ़ लेते। वे गृहस्थ होते हुई भी सही मायनों में साधू थे। माथे पर रामानंदी चन्दन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहने रहते। उनका एक बेटा और पतोहू थे। वे कबीर को साहब मानते थे। किसी दूसरे की चीज़ नही छूटे और न बिना वजह झगड़ा करते। उनके पास खेती बाड़ी थी तथा साफ़-सुथरा मकान था। खेत से जो भी उपज होती, उसे पहले सिर पर लादकर कबीरपंथी मठ ले जाते और प्रसाद स्वरुप जो भी मिलता उसी से गुजर बसर करते।

वे कबीर के पद का बहुत मधुर गायन करते। आषाढ़ के दिनों में जब समूचा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन पूरा शरीर कीचड़ में लपेटे खेत में रोपनी करते हुए अपने मधुर गानों को गाते। भादो की अंधियारी में उनकी खँजरी बजती थी, जब सारा संसार सोया होता तब उनका संगीत जागता था। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जातीं। वे अहले सुबह नदी-स्नान को जाते और लौटकर पोखर के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजरी लेकर बैठ जाते और अपना गाना शुरू कर देते। गर्मियों में अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। उनकी संगीत साधना का चरमोत्कर्ष तब देखा गया जिस दिन उनका इकलौता बेटा मरा। बड़े शौक से उन्होंने अपने बेटे कि शादी करवाई थी, बहू भी बड़ी सुशील थी। उन्होंने मरे हुए बेटे को आँगन में चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढक रखा था तथा उसपर कुछ फूल बिखरा पड़ा था। सामने बालगोबिन ज़मीन पर आसन जमाये गीत गाये जा रहे थे और बहू को रोने के बजाये उत्सव मनाने को कह रहे थे चूँकि उनके अनुसार आत्मा परमात्मा पास चली गयी है, ये आनंद की बात है। उन्होंने बेटे की चिता को आग भी बहू से दिलवाई। जैसे ही श्राद्ध की अवधि पूरी हुई, बहू के भाई को बुलाकर उसके दूसरा विवाह करने का आदेश दिया। बहू जाना नही चाहती थी, साथ रह उनकी सेवा करना चाहती थी परन्तु बालगोबिन के आगे उनकी एक ना चली उन्होंने दलील अगर वो नही गयी तो वे घर छोड़कर चले जायेंगे।

बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके अनुरूप ही हुई। वे हर वर्ष गंगा स्नान को जाते। गंगा तीस कोस दूर पड़ती थी फिर भी वे पैदल ही जाते। घर से खाकर निकलते तथा वापस आकर खाते थे, बाकी दिन उपवास पर। किन्तु अब उनका शरीर बूढ़ा हो चूका था। इस बार लौटे तो तबीयत ख़राब हो चुकी थी किन्तु वी नेम-व्रत छोड़ने वाले ना थे, वही पुरानी दिनचर्या शुरू कर दी, लोगों ने मन किया परन्तु वे टस से मस ना हुए। एक दिन अंध्या में गाना गया परन्तु भोर में किसी ने गीत नही सुना, जाकर देखा तो पता चला बालगोबिन भगत नही रहे।

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Harsh Rathor 5 years ago

Supporting answer

Riya Rana 5 years ago

*Koi* Anischayvachak svarnam, avyay, karta karak, ek Vachan, pulling *School* Karm karak, ek vachan, pulling, jaativachak *jata hain* Sakarmak kriya, pulling, ek Vachan
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Gaurav Seth 5 years ago

Panwala udas ho gaya. Usne peeche mudkar muh ka pan neeche thuka aur sar jhukakar apni dhoti ke sire se aankhe pochta hua bola- 'Sahab! Captain mar gaya'.

Iss vaky se panwale ki bhavukta sambandi visheshta ubharkar aati hai. Captain ke jeete ji usse langda thata pagal kehne wala uske mrutyu ke baad hi yeh samaj paaya tha ki captain jaise log desh bhakto thata kasbe ke sammaan prahri hote hai.

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