सुमित्रानंदन पन्त यह कविता पंत जी के प्रगतिशील दौर की कविता है | इसमें विकास की विरोधाभासी अवधारणाओं पर करारा प्रहार किया गया है | युग-युग से शोषण के शिकार किसान का जीवन कवि को आहत करता है | दुखद बात यह है कि स्वाधीन भारत में भी किसानों को केंद्र में रखकर व्यवस्था ने निर्णायक हस्तक्षेप नहीं किया |